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हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955


 Legal Advocacy Programme

(www.helpadvocacy.com)

2. यह अधिनियम लागू है

ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो हिन्दू धर्म के किसी भी रूप या विकास के अनुसार, जिसके अन्तर्गत वीरशैव, लिंगायत अथवा ब्रह्मो समाज, प्रार्थना समाज या आर्यसमाज के अनुयायी भी आते हैं; धर्मतः हिन्दू हो;

3. परिभाषाएं. इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो-

(क) "रूढ़ि" और "प्रथा", पद ऐसे किसी भी नियम का संज्ञान कराते हैं जिसने दीर्घकाल तक निरन्तर और एकरूपता से अनुपालित किए जाने के कारण किसी स्थानीय क्षेत्र, जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के हिन्दुओं में विधि का बल अभिप्राप्त कर लिया हो :

(ग) "पूर्ण-रक्त" और "अर्ध रक्त" कोई भी दो व्यक्ति एक दूसरे से पूर्ण रक्त से सम्बन्धित तब कहे जाते हैं जब कि वे एक ही पूर्वज से एक ही पत्नी द्वारा अवजनित हों और अर्ध रक्त से तब जब कि वे एक ही पूर्वज से किन्तु भिन्न पलियों द्वारा अवजनित हों;

(घ) "एकोदर-रक्त" -दो व्यक्ति एक से एकोदर रक्त से सम्बन्धित तब कहे जाते हैं जब कि वे एक ही पूर्वजा से किन्तु भिन्न पतियों द्वारा अवजनित हों;

स्पष्टीकरण. - खण्ड (ग) और (घ) में "पूर्वज" के अन्तर्गत पिता और "पूर्वजा" के अन्तर्गत माता आती है;

(i) "सपिण्ड नातेदारी" जब निर्देश किसी व्यक्ति के प्रति हो तो, माता के माध्यम से उसकी ऊपरली ओर की परम्परा में तीसरी पीढ़ी तक (जिसके अन्तर्गत तीसरी पीढ़ी भी आती है) और पिता के माध्यम से उसकी ऊपरली ओर की परम्परा में पाँचवीं पीढ़ी तक (जिसके अन्तर्गत पाँचवी पीढ़ी भी आती है), जाती है, हर एक दशा में वंश परम्परा सम्पृक्त व्यक्ति से, जिसे पहली पीढ़ी का गिना जाएगा, ऊपर की ओर चलेगी;

(ii) दो व्यक्ति एक दूसरे के "सपिण्ड" तब कहे जाते हैं जबकि या तो एक उनमें से दूसरे का सपिण्ड नातेदारी की सीमाओं के भीतर पूर्वपुरुष हो या जब कि उनका ऐसा कोई एक ही पारंपरिक पूर्वपुरुष, जो, निर्देश उनमें से जिस किसी के भी प्रति हो, उससे सपिण्ड नातेदारी की सीमाओं के भीतर हो;

हिन्दू विवाह 

5. हिन्दू विवाह के लिए शर्तें. - दो हिन्दुओं के बीच विवाह अनुष्ठापित किया जा सकेगा यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी हो जाएँ, अर्थात् :-

(1) विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से, न तो वर की कोई जीवित पत्नी हो और न वधू का कोई जीवित पति हो;

1[(ii) विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से कोई पक्षकार -

(क) चित्त-विकृति के परिणामस्वरूप विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ न हो; या

वैवाहिक सम्बन्ध का तात्पर्य एक पति या पत्नी के विधिक रूप से संरक्षित वैवाहिक हित का दूसरे के लिए होना है, जिसके अन्तर्गत अन्य की वैवाहिक आबद्धता, जैसे साथ, एक ही छत के नीचे रहना, लैंगिक सम्बन्ध और उनका अनन्य उपभोग, बच्चों को रखना, उनका पालन करना, घर में सेवा, समर्थन, स्नेह, प्रेम, पसन्द इत्यादि है। पिनाकीन महिपतराय राव वि० गुजरात राज्य, ए० आई० आर० 2014 एस० सी० 331

हिन्दू पुरुष और ईसाई महिला के बीच विवाह किन्तु विवाह के पूर्व पत्नी ने सभी अनुष्ठानों और समारोहों का निर्वहन करके हिन्दू धर्म स्वीकार किया था। इसके पश्चात उनमें से दोनों पति और पत्नी के रूप में एक साथ रहते थे। इसे अधिनियम के अधीन विधिमान्य विवाह होना निर्णीत किया गया। मधु चौधरी वि० राजिन्दर कुमार, ए० आई० आर० 2019 पी० एण्ड एच०82.

7. हिन्दू विवाह के लिये कर्मकांड. -

(1) हिन्दू विवाह उसके पक्षकारों में से किसी की भी रूढ़िगत रीतियों और कर्मकांड के अनुसार अनुष्ठापित किया जा सकेगा।

(2) जहाँ कि ऐसी रीतियों और कर्मकांड के अन्तर्गत सप्तपदी (अर्थात् अग्नि के समक्ष वर और वधू द्वारा संयुक्तत: सात पद चलना) आती हो वहाँ विवाह पूर्ण और आबद्धकर तब होता है जब सातवाँ पद चल लिया जाता है।

8. हिन्दू विवाहों का रजिस्ट्रीकरण. - 

(1) राज्य सरकार हिन्दू विवाहों का साबित किया जाना सुकर करने के प्रयोजन से ऐसे नियम बना सकेगी जो यह उपबन्धित करें कि ऐसे किसी विवाह के पक्षकार अपने विवाह से सम्बद्ध विशिष्टियों को इस प्रयोजन के लिये रखे गये हिन्दू बिवाह रजिस्टर में ऐसी रीति में और ऐसी शर्तों के अध्यधीन, जैसी कि विहित की जाएं, प्रविष्ट करा सकेंगे।

(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, यदि राज्य सरकार की यह राय हो b कि ऐसा करना आवश्यक या समाचीन है तो वह यह उपबन्ध कर सकेगी कि उपधारा (1) में निर्दिष्ट विशिष्टयों का प्रविष्ट किया जाना उस राज्य में या उसके किसी भाग विशेष में, चाहे सभी दशाओं में, चाहे ऐसी दशाओं में, जो विनिर्दिष्ट की जाएं, वैवश्यक होगा और जहाँ कि कोई ऐसा निदेश निकाला गया हो, वहाँ इस निमित्त बनाए किसी नियम का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति जुर्माने से, जो कि पच्चीस रुपये तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा

दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन और न्यायिक पृथक्करण

9. दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन. - जहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या साहचर्य के प्रत्याहरण के लिए युक्तियुक्त प्रतिहेतु है, वहाँ युक्तियुक्त प्रतिहेतु साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसने साहचर्य से प्रत्याहरण किया है।]

10. न्यायिक पृथक्करण. - 

(1) विवाह का कोई पक्षकार, चाहे वह विवाह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अनुष्ठापित हुआ हो, धारा 13 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट किसी आधार पर और पत्नी की दशा में में उक्त धारा की उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट किसी आधार पर भी, जिस पर विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी पेश की जा सकती थी, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए अर्जी पेश कर सकेगा।]

2) जहाँ कि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित हो गई हो, वहाँ अर्जीदार पर इस बात की बाध्यता न होगी कि वह प्रत्यर्थी के साथ सहवास करे, किन्तु दोनों पक्षकारों में से किसी के भी अर्जी द्वारा आवेदन करने पर तथा ऐसी अर्जी में किये गए कथनों की सत्यता के बारे में अपना समाधान हो जाने पर न्यायालय, यदि वह ऐसा करना न्यायसंगत और युक्तियुक्त समझे तो, डिक्री को विखण्डित कर सकेगा।

विवाह की अकृतता और विवाह-विच्छेद

11. शून्य विवाह. - इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् अनुष्ठापित कोई भी विवाह, यदि वह धारा 5 के खण्ड (i), (iv) और (v) में विनिर्दिष्ट शर्तों में से किसी एक का भी उल्लंघन करता हो तो, अकृत और शून्य होगा और विवाह के किसी भी पक्षकार द्वारा 1 [ दूसरे पक्षकार के विरुद्ध] उपस्थापित अर्जी पर अकृतता की डिक्री द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा।

टिप्पणी

जहाँ भरण-पोषण के लिए पत्नी के दावे का विरोध पति द्वारा इस आधार पर किया गया था कि उनका विवाह शून्य था क्योंकि पत्नी का पहले विद्यमान विवाह था और उसके दावे के समर्थन में पत्नी के पूर्व विवाह का विवाह प्रमाणपत्र पेश किया था, वहाँ केवल पेश किए गए प्रमाणपत्र के आधार पर, भरण-पोषण के लिए पत्नी के दावे को नामंजूर नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह धारा शून्य विवाह के पक्षकारों में से किसी को विकल्प प्रदान करती है कि वह ऐसे विवाह की अविधिमान्यता/अकृतता की घोषणा की अपेक्षा कर सकता है, फिर भी ऐसे विकल्प का प्रयोग सभी स्थितियों में ऐच्छिक होना नहीं समझा जा सकता। देवकी पंझियारा वि० शशिभूषण नारायण आजाद एवं एक अन्य, ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 346 

पत्नी पहले से विवाहिता थी और उसका प्रथम पति उसके द्वितीय विवाह के समय जीवित था, जिसे पत्नी द्वारा स्वीकार किया गया है। उसके प्रथम विवाह के विघटन के सम्बन्ध में पत्नी का कोई अभिवचन नहीं है और न ही रूढ़िगत विवाह विच्छेद को साबित करने के लिए कोई सबूत प्रदान किया गया है। अतः द्वितीय पति विवाह के अकृत और शून्य होने की घोषणा का हकदार है। मिसेज प्रिया दयालदास जेठानी वि० हितेश घनश्याम सावलानी, ए० आई० आर० 2019 बम्बई 108.

12. शून्यकरणीय विवाह. - (1) कोई भी विवाह, वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो, चाहे पश्चात्, निम्नलिखित आधारों में से किसी पर भी शून्यकरणीय होगा और अकृतता की डिक्री द्वारा बातिल किया जा सकेगा :-

(क) कि प्रत्यर्थी की नपुंसकता के कारण विवाहोत्तर संभोग नहीं हुआ है; या]

(ख) कि विवाह धारा 5 के खण्ड (ii) में विनिर्दिष्ट शर्तों का उल्लंघन करता है; या

(ग) कि अर्जीदार की सम्मति या, जहाँ कि 3 [ धारा 5 जिस रूप में बाल विवाह अवरोध (संशोधन) अधिनियम, 1978 (1978 का 2) प्रारम्भ के ठीक पूर्व विद्यमान थी उस रूप में उसके अधीन अर्जीदार के विवाहार्थ संरक्षक की सम्मति अपेक्षित हो] वहां ऐसे संरक्षक की सम्मति, बल प्रयोग द्वारा 2[ या कर्मकांड की प्रकृति के बारे में या प्रत्यर्थी से संबंधित किसी तात्विक तथ्य या परिस्थिति के बारे में कपट द्वारा] अभिप्राप्त की गई थी; या

(घ) कि प्रत्यर्थी विवाह के समय अर्जीदार से भिन्न किसी व्यक्ति द्वारा गर्भवती थी।

13. विवाह-विच्छेद. - (1) कोई भी विवाह, वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के चाहे पूर्व अनुष्ठापित हुआ हो चाहे पश्चात्, पति अथवा पत्नी द्वारा उपस्थापित अर्जी पर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर विघटित किया जा सकेगा कि-

1(1) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठापन के पश्चात् अपनी पत्नी या अपने पति से भिन्न किसी व्यक्ति के साथ स्वेच्छया मैथुन /Intercorse किया है; या

(1क) दूसरे पक्षकार ने विवाह के अनुष्ठापन के पश्चात् अर्जीदार के साथ क्रूरता का व्यवहार किया है; या

(ख) दूसरे पक्षकार ने अर्जी के पेश किए जाने के अव्यवहित पूर्व कम से कम दो वर्ष की निरन्तर कालावधि पर अर्जीदार को अभित्यक्त रखा है; या]

(i) दूसरा पक्षकार अन्य धर्म में संपरिवर्तित हो जाने के कारण हिन्दू नहीं रह गया है; या

1[(iii) दूसरा पक्षकार असाध्य रूप से विकृत-चित्त रहा है अथवा निरन्तर या आंतरायिक रूप से इस प्रकार के और इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित रहा है कि अर्जीदार से युक्तियुक्त रूप से आशा नहीं की जा सकती है कि वह प्रत्यर्थी के साथ रहे।

स्पष्टीकरण. - इस खण्ड में, -

(क) "मानसिक विकार" पद से मानसिक बीमारी, मस्तिष्क का संरोध या अपूर्ण विकास, मनोविकृति या मस्तिष्क का कोई अन्य विकार या निःशक्तता अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत विखण्डित मनस्कता भी है;

(ख) "मनोविकृति" पद से मस्तिष्क का दीर्घ स्थायी विकार या निःशक्तता (चाहे इसमें वृद्धि की अवसामान्यता हो या नहीं) अभिप्रेत है जिसके परिणामस्वरूप अन्य पक्षकार का आचरण असामान्य रूप से आक्रामक या गम्भीर रूप से अनुत्तरदायी हो जाता है और चाहे उसके लिये चिकित्सीय उपचार अपेक्षित हो या नहीं, अथवा ऐसा उपचार किया जा सकता हो या नहीं; या

(v) दूसरा पक्षकार संचारी रूप के रतिज रोग से पीड़ित रहा है; या

(vi) दूसरा पक्षकार किसी धार्मिक पंथ के अनुसार प्रव्रज्या ग्रहण कर चुका है; या

1964 से विलुप्त दूसरा पक्षकार जीवित है या नहीं इसके बारे में सात वर्ष या उससे अधिक की कालावधि के भीतर उन्होंने कुछ नहीं सुना है जिन्होंने उसके बारे में यदि वह पक्षकार जीवित होता तो स्वाभाविकतः सुना होता l 

2) एक पत्नी विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा अपने विवाह के विघटन के लिए इस आधार पर भी अर्जी उपस्थापित कर सकेगी-

2(iii) कि हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (1956 का 78) की धारा 18 के अधीन वाद में या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 125 के अधीन [या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) की तत्समान धारा 488 के अधीन] कार्यवाही में, पत्नी को भरण-पोषण दिलवाने के लिए पति के विरुद्ध यथास्थिति, डिक्री या आदेश इस बात के होते हुए भी पारित किया गया है कि वह अलग रहती थी और ऐसी डिक्री या आदेश के पारित किए जाने के समय से एक वर्ष या उससे ऊपर की कालावधि भर पक्षकारों के बीच सहवास का पुनरारम्भ नहीं हुआ है;

नोट: 

एक ही छत के नीचे एक साथ ठहरना मानसिक क्रूरता के लिए पूर्व शर्त नहीं है। पति या पत्नी उसके आचरण द्वारा मानसिक क्रूरता कर सकता है या कर सकती है, जब वह एक ही छत के नीचे नहीं रह रहा है या रह रही है। के० श्रीनिवास राव वि० डी० ए० दीपा, ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 2176. 

जब यह साबित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं है कि पत्नी किसी असाध्य चित्त विकृति से पीड़ित है और न ही यह कहा जा सकता था कि वह ऐसी मानसिक विकृति से ग्रस्त है, तो युक्तियुक्त ढंग से उसके साथ रहने के लिए उसके पति से प्रत्याशा नहीं की जा सकती। अतः, पति मानसिक विकृति के आधार पर विवाह-विच्छेद का हकदार नहीं होगा। दर्शन गुप्ता वि० राधिका गुप्ता, ए० आई० आर० 2013 एस० सी० (सप्ली० ) 85.

पत्नी द्वारा पर्याप्त अवधि तक मैथुन करने से मनाही मानसिक क्रूरता की कोटि में आती है, अतः पति विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए हकदार है। विद्या विश्वनाथन वि० कार्तिक बालाकृष्णन, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 285.

किसी निकट सम्बन्धी को वैवाहिक गृह में आने या निवास करने के लिए दुष्कर बनाना असंदिग्ध रूप से अन्य जीवनसाथी के प्रति क्रूरता में परिणामित होगा। विनोद कुमार सुब्बैयाह वि० सरस्वती पलानीयप्पन, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 2504.

पति को परिवार से पृथक होने के लिए विवश करने के लिए पत्नी का निरन्तर प्रयास पति के लिए दुःदायी होगा और क्रूरता का कार्य गठित करता है। अतः, पति विवाह-विच्छेद की डिक्री का हकदार होगा। नरेन्द्र वि० के० मीणा, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 4599.

 विवाहेतर मामलों के सम्बन्ध में पत्नी द्वारा लगाया गया अप्रमाणित अभिकथन और उसके द्वारा आत्महत्या करने की धमकी और प्रयास मानसिक क्रूरता की कोटि में आता है। अतः, पति विवाह विच्छेद की डिक्री का हकदार है। नरेन्द्र वि० के० मीणा, ए० आई० आर० 2016 एस० सी० 4599.

पति, उसके परिवार के सम्बन्धियों और सहयोगियों के विरुद्ध मिथ्या अभिकथन लगाने, उसकी ख्याति को कम करने का पत्नी का आचरण क्रूरता की कोटि में आता है। पति विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए हकदार है। राज तलरेजा वि० कविता तलरेजा, ए० आई० आर० 2017 एस० सी० 2138.

पति द्वारा पत्नी के नाम में ऋण लेना और उसका पुनर्भुगतान न करना क्रूरता की कोटि में आता है। पत्नी विवाह विच्छेद के लिए हकदार । श्रीमती मनप्रीत वर्मा वि० बृज वर्मा, ए० आई० आर० 2018 उत्तराखण्ड 142.

एकमात्र तथ्य कि पत्नी पिछले 17 वर्षों से अपने पैतृक गृह में निवास कर रही है, विवाह के विघटन के लिए एकमात्र आधार नहीं हो सकता है, जब तक अधित्यजन का तथ्य साबित नहीं हो जाता और अधित्यजन का आशय स्थापित नहीं हो जाता। पति विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए हकदार नहीं है। श्रीमती उषा देवी वि० नगेन्द्र साह, ए० आई० आर० 2019 गौहाटी 30.

13ख. पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद- 

(1) इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन रहते हुए यह कि विवाह के दोनों पक्षकार मिलकर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी, चाहे ऐसा विवाह, विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारम्भ के पूर्व या उसके पश्चात् अनुष्ठापित किया गया हो, जिला न्यायालय में, इस आधार पर पेश कर सकेंगे कि वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं और वे एक साथ नहीं रह सके हैं तथा वे इस बात के लिए परस्पर सहमत हो गये हैं कि विवाह विघटित कर दिया जाना चाहिए।

(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट अर्जी के पेश किए जाने की तारीख से छह मास के पश्चात् और उस तारीख से अठारह मास के पूर्व दोनों पक्षकारों द्वारा किए गए प्रस्ताव पर, यदि इस बीच अर्जी वापस नहीं ले ली गई हो तो, न्यायालय पक्षकारों को सुनने के पश्चात् और ऐसी जाँच, करने के पश्चात् जो वह ठीक समझे अपना यह समाधान कर लेने पर कि विवाह अनुष्ठापित हुआ है और अर्जी में किये गये प्रकथन सही हैं, यह घोषणा करते हुए विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित करेगा कि विवाह डिक्री की तारीख से विघटित हो जाएगा।]

14. विवाह से एक वर्ष के भीतर विवाह-विच्छेद के लिए कोई अर्जी उपस्थापित न की जाएगी.-

 (1) इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुये भी, कोई भी न्यायालय विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन की कोई अर्जी ग्रहण करने के लिए तब तक = सक्षम न होगा । [ जब तक कि विवाह की तारीख से उस अर्जी के पेश किए जाने की तारीख तक एक वर्ष बीत न चुका हो :]

परन्तु न्यायालय, उन नियमों के अनुसार किये गये आवेदन पर, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त बनाए जाएं, किसी अर्जी का, विवाह की तारीख से 1 [ एक वर्ष बीतने के पूर्व भी इस आधार पर उपस्थापित किया जाना अनुज्ञात कर सकेगा कि मामला अर्जीदार के लिए असाधारण कष्ट का है या प्रत्यर्थी की असाधारण दुराचारिता से युक्त है; किन्तु यदि अर्जी की सुनवाई के समय न्यायालय को यह प्रतीत हो कि अर्जीदार ने अर्जी को उपस्थापित करने की इजाजत किसी दुर्व्यपदेशन या मामले की प्रकृति के प्रच्छादन द्वारा अभिप्राप्त की थी तो वह, डिक्री देने की दशा में, इस शर्त के अध्यधीन डिक्री दे सकेगा कि डिक्री तब तक सप्रभाव न होगी जब तक कि विवाह की तारीख से 1[एक वर्ष का अवसान] न हो जाए अथवा उस अर्जी को ऐसी अर्जी पर कोई प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना खारिज कर सकेगा जो 

1 [ उक्त एक वर्ष के अवसान] के पश्चात् उन्हीं या सारतः उन्हीं तथ्यों पर दी जाए जो ऐसे खारिज की गई अर्जी के समर्थन में अभिकथित किए गए थे।

(2) विवाह की तारीख से एक वर्ष के अवसान] से पूर्व विवाह-विच्छेद की अर्जी उपस्थापित करने की इजाजत के लिये इस धारा के अधीन किये गए किसी आवेदन का निपटारा करने में न्यायालय उस विवाह से उत्पन्न किसी अपत्य के हितों पर तथा इस बात पर ध्यान रखेगा कि पक्षकारों के बीच उक्त एक वर्ष के अवसान] से पूर्व मेल-मिलाप की कोई युक्तियुक्त साभाव्यता है या नहीं।

15. कब विवाह-विच्छेद प्राप्त व्यक्ति पुनः विवाह कर सकेंगे, जब कि विवाह-विच्छेद की डिक्री-द्वारा विवाह विघटित कर दिया गया हो और या तो डिक्री के विरुद्ध अपील करने का कोई अधिकार ही न हो यदि अपील का ऐसा अधिकार हो तो अपील करने के समय का कोई अपील उपस्थापित हुए बिना अवसान हो गया हो या अपील की तो गई हो किन्तु खारिज कर दी गई हो तब विवाह के किसी पक्षकार के लिए पुनः विवाह करना विधिपूर्ण होगा।

नोट: द्वितीय विवाह से जन्मा शिशु धर्मज है और अनुकम्पा नियुक्ति का हकदार है। भारत संघ वि० बीट आर० त्रिपाठी, ए० आई० आर० 2019 एस० सी० 666.

17. द्विविवाह के लिए दण्ड. - यदि इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् दो हिन्दुओं के बीच अनुष्ठापित किसी विवाह की तारीख पर ऐसे विवाह के किसी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित था थी तो ऐसा विवाह शून्य होगा और भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 494 और 495 के उपबन्ध उसे तदानुसार लागू होंगे।

18. हिन्दू विवाह की कतिपय अन्य शर्तों के उल्लंघन के लिए दण्ड- हर व्यक्ति जो अपना कोई ऐसा विवाह उपाप्त करेगा जो धारा 5 के खण्ड (iii), (iv), '[ और (v)] में विनिर्दिष्ट शर्तों के उल्लंघन में इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित किया गया हो वह-

2[(क) धारा 5 के खण्ड (iii) में विनिर्दिष्ट शर्त के उल्लंघन की दशा में, कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो एक लाख रुपये तक का हो सकेगा अथवा दोनों से;]

अधिकारिता और प्रक्रिया

4[ 19. वह न्यायालय जिसमें अर्जी उपस्थापित की जाएगी. - इस अधिनियम के अधीन हर अर्जी उस जिला न्यायालय के समक्ष पेश की जाएगी जिसकी मामूली आरम्भिक सिविल अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के अन्दर-

(i) विवाह का अनुष्ठान हुआ था; या

(ii) प्रत्यर्थी, अर्जी के पेश किए जाने के समय, निवास करता है; या

(iii) विवाह के पक्षकारों ने अन्तिम बार एक साथ निवास किया था; या 5[ (iiiक) यदि पत्नी अर्जीदार है तो जहां वह अर्जी पेश किए जाने के समय निवास कर रहीहै; या]

(iv) अर्जीदार के अर्जी पेश किए जाने के समय निवास कर रहा है, यह ऐसे मामले में, जिसमें प्रत्यर्थी उस समय पर ऐसे राज्यक्षेत्र के बाहर निवास कर रहा है जिस पर इस अधिनियम का विस्तार है अथवा वह जीवित है या नहीं इसके बारे में सात वर्ष या उससे अधिक की कालावधि के भीतर उन्होंने कुछ नहीं सुना है, जिन्होंने, उसके बारे, में, यदि वह जीवित होता तो, स्वभाविकतया सुना होता ।]

21ग. दस्तावेजी साक्ष्य. - किसी अधिनियमिति में किसी प्रतिकूल बात के होते हुये भी यह है कि इस अधिनियम के अधीन अर्जी के विचारण की किसी कार्यवाही में कोई दस्तावेज साक्ष्य में इस आधार पर अग्राह्य नहीं होगा कि वह सम्यक् रूप से स्टाम्पित या रजिस्ट्रीकृत नहीं है।]

22. कार्यवाहियों का बन्द कमरे में होना और उन्हें मुद्रित या प्रकाशित न किया जाना.- 

(1) इस अधिनियम के अधीन हर कार्यवाही बन्द कमरे में की जाएगी और किसी व्यक्ति के लिए ऐसी किसी कार्यवाही के सम्बन्ध में किसी बात को मुद्रित या प्रकाशित करना विधिपूर्ण नहीं होगा किन्तु उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय को छोड़कर जो उस न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा से मुद्रित या प्रकाशित किया गया है।

(2) यदि कोई व्यक्ति उपधारा (1) के उपबन्धों के उल्लंघन में कोई बात मुद्रित या प्रकाशित करेगा तो वह जुर्माने से, जो एक एक हजार रुपये तक का हो सकेगा, दण्डनीय होगा।]

24. वाद लम्बित रहते भरण-पोषण और कार्यवाहियों के व्यय- जहाँ कि इस अधिनियम के अधीन होने वाली किसी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत हो कि, यथास्थिति, पति या पत्नी की ऐसी कोई स्वतन्त्र आय नहीं है जो उसके संभाल और कार्यवाही के आवश्यक व्ययों के लिए पर्याप्त हो वहां वह पति या पत्नी के आवेदन पर प्रत्यर्थी को यह आदेश दे सकेगा कि वह अर्जीदार को कार्यवाही में होने वाले व्यय तथा कार्यवाही के दौरान में प्रतिमास ऐसी राशि संदत्त करे जोअर्जीदार की अपनी आय तथा प्रत्यर्थी की आय को देखते हुए न्यायालय को युक्तियुक्त प्रतीत होती हो:

1[ परन्तु कार्यवाही के व्ययों और कार्यवाही के दौरान ऐसी मासिक राशि के संदाय के लिए आवेदन को यथासंभव, यथास्थिति, पत्नी या पति पर सूचना तामील की तारीख से, साठ दिन के भीतर निपटाया जाएगा।]

टिप्पणी

अन्तरिम भरण-पोषण के लिए आदेश करने के मामले में, न्यायालय के विवेकाधिकार का मार्गनिर्देशन इस धारा में उपबन्धित मापदण्ड द्वारा किया जाना चाहिए, अर्थात् पक्षकारों के साधन और आनुषंगिक तथा अन्य सुसंगत कारक में जैसे सामाजिक स्थिति, पृष्ठभूमि, जिससे दोनों पक्षकार आते हैं और याची की आर्थिक आश्रितता पर भी विचार करने के पश्चात्। चूंकि अन्तरिम भरण पोषण के लिए आदेश अपनी मूल प्रकृति में अस्थायी है, इसलिए न्यायालय द्वारा ब्यौरेषार और व्यापक प्रयोग आवश्यक नहीं हो सकता किन्तु उसो समय न्यायालय को सभी सुसंगत कारकों को ध्यान में रखना चाहिए और उन कारकों को, जो परिनियम में वर्णित हैं, ध्यान में रखते हुए समुचित रकम पर पहुंचना चाहिए। नीता राकेश जैन वि० राकेशजीतमल जैन, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 3540.

25. स्थायी निर्वाहिका और भरण-पोषण.

(1) इस अधिनियम के अधीन अधिकारिता का प्रयोग कर रहा कोई भी न्यायालय, डिक्री पारित करने के समय या उस के पश्चात् किसी भी समय, यथास्थिति, पति या पत्नी द्वारा इस प्रयोजन से किए गए आवेदन पर, यह आदेश दे सकेगा कि प्रत्यर्थी, [ *] उसके भरण-पोषण और सँभाल के लिए ऐसी कुल राशि या ऐसी मासिक अथवा कालिक राशि, जो प्रत्यर्थी की अपनी आय और अन्य सम्पत्ति की, यदि कोई हो आवेदक या आवेदिका की आय और अन्य सम्पत्ति को 3 [ तथा पक्षकारों के आचरण और मामले की अन्य परिस्थितियों को देखते हुए] न्यायालय को न्यायसंगत प्रतीत हो, आवेदक या आवेदिका के जीवन- काल से अनधिक अवधि के लिए संदत्त करे और ऐसा कोई भी संदाय, यदि यह करना आवश्यक हो तो, प्रत्यर्थी की स्थावर सम्पत्ति पर भार द्वारा प्रतिभूत किया जा सकेगा।

(2) यदि न्यायालय का समाधान हो जाए कि उसको उपधारा (1) के अधीन आदेश करने के पश्चात् पक्षकारों में से किसी की भी परिस्थितियों में तबदीली हो गई है तो वह किसी भी पक्षकार की प्रेरणा पर ऐसी रीति से जो न्यायालय को न्यायसंगत प्रतीत हो, ऐसे किसी आदेश में फेरफार कर सकेगा या उसे उपान्तरित अथवा विखण्डित कर सकेगा।

(3) यदि न्यायालय का समाधान हो जाए कि उस पक्षकार ने जिसके पक्ष में इस धारा के अधीन कोई आदेश किया गया है, पुनर्विवाह कर लिया है यदि ऐसा पक्षकार पत्नी है तो वह पतिव्रता नहीं रह गई है, या यदि ऐसा पक्षकार पति है तो उसने किसी स्त्री के साथ विवाहबाह्य मैथुन किया है, तो वह दूसरे पक्षकार की प्रेरणा पर ऐसे किसी आदेश को ऐसी रीति में, जो न्यायालय न्यायसंगत समझे परिवर्तित, उपांतरित या विखंडित कर सकेगा] ।

यद्यपि पति के विरुद्ध मिथ्या अभियोग लगाने का पत्नी का आचरण क्रूरता के समान है, फिर भी न्यायालय शालीन जीवन के लिए पत्नी की अपेक्षाओं का विस्मरण नहीं कर सकता। अतः पत्नी एक मुश्त स्थायी जीवन निर्वाह के लिए हकदार है। राज तलरेजा वि० कविता तलरेजा, ए० आई० आर० 2017 एस० सी० 2138


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वन स्टॉप सेंटर : सामान्य जानकारी

सामान्य पूर्व धारणा : हम स्वयं या हमारे आसपास कई ऐसे परिवार है जो किन्ही कारणों से घरेलू विवादों और आपसी सामंजस्य के अभाव में अपनी वैवाहिक जीवन से त्रस्त है. पीड़ित पक्ष के चुप्पी का कारण परिस्थितिजन्य होने के साथ-साथ पुलिस या अन्य संबंधित शिकायतों से उनके सार्वजनिक  जीवन में एकांतता के अभाव की अनायास शंका या अति सामाजिक प्रतिष्ठा से निजी जीवन के रिश्ते में हुई खटास से बदनामी का डर होता है. ऐसे प्रकरण में आरोपी ( प्रत्यर्थी) इस डर का नाजायज फायदा उठाने का प्रयास करता है. उन्हें यह भ्रम होता है कि उनके कृत्यों को उसके आसपास की रहवासी आम जनता हर बार नजरंदाज करते  रहेंगे, ऐसे में इस लेख के माध्यम से हम एक आम जागरूक नागरिक की भूमिका में समाज को विधि द्वारा स्थापित संस्थानों से परिचय कराना चाहते है जिससे जनमानस को ऐसे संस्थानों का महत्व पता चले. शुरुआत करते है ' वन स्टॉप सेंटर' से...     हिंसा से प्रभावित महिलाओं को सहायता प्रदान करने के लिए 01 अप्रैल , 2015 से वन स्टॉप सेंटर/ ओएससी/साक्षी केंद्र स्थापित करने की स्कीम क्रियान्वित कर रहा है। स्कीम का उद्देश्य हिंसा से प्रभावित महिलाओ

जिला एवं सत्र न्यायालय बिलासपुर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

वर्तमान न्यायधानी बिलासपुर ब्रिटिश काल में छत्तीसगढ़ संभाग में शामिल था और उस संभाग के आयुक्त की देखरेख में था। यह उस डिवीजन के डिविजनल जज के अधिकार क्षेत्र में था जो सत्र न्यायाधीश कहलाता था। सभी अदालतें नागपुर में न्यायिक आयुक्त के अधीन थीं। पूर्व में सक्ती और रायगढ़ तथा उत्तर में रीवा के देशी राज्यों में रेलवे सीमा के भीतर और सक्ति , रायगढ़ तथा कवर्धा के देशी राज्यों में यूरोपीय ब्रिटिश विषयों पर भी उनका अधिकार क्षेत्र था। उनके पास पूर्ण शक्तियों का प्रयोग करने वाले चार सहायकों का स्वीकृत स्टाफ था I जिला पंचायत कार्यालय बिलासपुर के ठीक सामने स्थित जिला एवं सत्र न्यायालय बिलासपुर में आज दिनांक 14 मार्च 2024 को जिला अधिवक्ता संघ निर्वाचन 2024 की मतगणना संपन्न करा लिया जाएगा जिसके पश्चात् जिला अधिवक्ता संघ अपने कार्यकारिणी सदस्यों के साथ इसकी दशा और दिशा तय करने में अपनी महती भूमिका निभाएँगे ...     कोरबा एवं  जांजगीर-चांपा राजस्व जिले में स्थानांतरण  जिले को तीन तहसीलों बिलासपुर , जांजगीर और मुंगेली में विभाजित किया गया था , प्रत्येक तहसील एक सहायक के अधीन एक सब-डिवीज़न थी , जहाँ स

सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 4 यानि लोक प्राधिकारियों की बाध्यताएं

विधिक शब्दावली का दैनिक जीवन में उपयोग अपेक्षाकृत कम होने की वजह से, हममें से अधिकांश देश की संसद द्वारा बनाए गए अधिनियम और सम्बंधित नियमों को समझ नहीं पाते है I इसमें भाषा रुकावट तो बनती ही है साथ में कानून के जानकारों की सुलभ उपलब्धता नहीं होने की वजह से विधि का विशाल लोकहित में प्रयोग नहीं हो पा रहा है I यह डिजिटल मंच इन्ही चुनौतिओं को दूर करने में आपकी सहायता करती है I आप इस लेख के अवलोकन पश्चात हमें बताएं आप किन रुचिकर विषयों पर संवाद करना चाहते है I आइये आज हम जाने सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 4 के बारे में... यह अधिनियम के अध्याय 2 में वर्णित है जिसका विषय है सूचना का अधिकार और लोक प्राधिकारियों की बाध्यताएं सूचना के अधिकार अधिनियम , 2005 की धारा 4 लोक प्राधिकारियों की बाध्यताएं :- (1) प्रत्येक लोक प्राधिकारी , - (क) अपने सभी अभिलेख को सम्यक् रूप से सूचीपत्रित और अनुक्रमणिकाबद्ध ऐसी रीति और रूप में रखेगा , जो इस अधिनियम के अधीन सूचना के अधिकार को सुकर बनाता है और सुनिश्चित करेगा कि ऐसे सभी अभिलेख , जो कंप्यूटरीकृत्त किए जाने के लिए समुचित हैं , युक्तियुक्त समय के